रविवार, 6 नवंबर 2016

पिछले दसक के सबसे लोकप्रिय मोबाइल फोन्स

केविन केली अपनी पुस्तक "व्हाट टेक्नोलॉजी वांट्स" में कहते हैं की तकनीक का निरंतर विकास एक अवसम्भावी घटना है, इसके प्रवाह को रोकना सम्भव नहीं। उन्होंने तकनीक को मनुष्य का मालिक और ग़ुलाम दोनों बताया है. मालिक इसलिए की हम अब तक तकनीक को अपने बस में रख पा रहे हैं. चाहे वह कार हो या कंप्यूटर, टीवी हो या अंतरिक्ष यान सब हमारे इशारों पे नाचते है. और दूसरी तरफ, हम तकनीक पर इतने आश्रित हो गए हैं के उनके बिना हमारा बच पाना सम्भव नहीं। तकनीक से उनका तात्पर्य सिर्फ मशीन या औजार नहीं है बल्कि वह सारी चीज़ें हैं जो हमें धरती के अन्य प्राणियों से अलग बनाती है. इसके दायरे में हमारी भाषा और हमारी सोच एवम खाना पकाना भी सम्मिलित हैं. 

गौरतलब है की इस तकनीक के महाप्रवाह में सारी तकनीकें हमारे लिए अपरिहार्य होंगी, ऐसा नहीं है। मोटे तौर पे तकनीक की उपयोगिता को हम दो भागों में बाँट सकते हैं- पहला अपरिहार्य तकनीकें जिनको हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। इनकी उपयोगिता को झुठलाना सम्भव नहीं। और दूसरी तरफ, ऐसी तकनीकें जो प्रत्यक्ष रूप से उतनी प्रासंगिक नहीं हो पाती पर अपरिहार्य तकनीकों को सामने आने तक अपनी भूमिका निभातीं हैं. पेजर डिवाइसेस जिन्होंने मोबाइल फ़ोन्स की तकनीक को अपरिहार्य बनाने में अपनी भूमिका निभाई CD और DVD ने पोर्टेबल डिवाइसेस (OTG, पेन ड्राइव इत्यादि) को लोकप्रिय बनाने में मदद की। ठीक वैसे ही जैसे किसी चीज़ की खूबी आपको तब पता लगती है जब उसकी खामियों से आप रूबरू हों. 

पिछले लगभग दो दशकों में मोबाइल फोन्स ने हमारे जीने का अंदाज़ बदल दिया है और अपरिहार्य तकनीक का एक श्रेष्ठ उदहारण है. भारतीय परिपेक्ष्य में अगर हम इसको देखें तो १९९० के अर्थव्यवस्था के निजीकरण के साथ ही मोबाइल तकनीक के विकास की कहानी शुरू होती है. भारत का पहला मोबाइल कॉल १९९५ में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री सुखराम को किया था। आज लगभग २१ वर्ष बाद भारत अपने १०० करोड़ से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन्स के साथ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है.

आज मोबाइल डिवाइस की तकनीक, उनका स्वरुप, सब कुछ बदल चुका है क्योंकि कालांतर में हमारी प्राथमिकताएं बदलीं हैं. भारत मोबाइल संयत्रों की बिक्री का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है. ऐसी आपाधापी में आईये जानते है बीते बीस सालों के कुछ ऐसे मोबाइल फ़ोन मॉडल्स के बारे में जिन्होंने प्रसिद्धि के नए कीर्तिमान स्थापित किये:

नोकिया एंगेज

७ अक्टूबर २००३ को नोकिया ने एक लीक से हटकर हैंडसेट मॉडल प्रस्तुत किया। मोबाइल को पहली बार गेम्स से जोड़ने का प्रयास हुआ और लोगों ने विशेष  रूप से युवाओं में काफी लोकप्रिय हुआ. कुछ लोगों को इसका बड़ा अकार और अपारंपरिक डिजाईन ज़्यादा पसंद नहीं आया और टैको (मेक्सिकन फ़ास्ट फ़ूड ) के मिलते अकार ने इसे 'टैको फ़ोन ' भी कहा गया. अगस्त २००७ तक नोकिया ने दुनियाभर के बाज़ारों में लगभग २० लाख फ़ोन बेच दिए. इसके बाद के मॉडल्स में ५० तक मोबाइल गेम्स इनबिल्ट थे.

नोकिया एंगेज

एचटीसी ड्रीम

सितंबर २००८ में एचटीसी ड्रीम मॉडल बाजार में उतारा। पहली बार किसी मोबाइल को लिनक्स बेस्ड एंड्राइड ऑपरेटिंग सिस्टम्स पर बनाया गया था. इसका डिजाईन भी समकालीन फ़ोन्स से अलग था. हालाँकि यह एक परफेक्ट फ़ोन नहीं था लेकिन एंड्राइड को स्थापित करने और दुनिया को एक नए ऑपरेटिंग सिस्टम्स से परिचय कराने में इसका अहम् रोल था. अप्रैल २००९ तक दस लाख एचटीसी ड्रीम बिक चुके थे.

एचटीसी ड्रीम
नोकिया N ७०

सितबर २००५ में नोकिया ने अपने न सीरीज का सबसे समुन्नत मॉडल बाजार में उतारा। सिम्बियन वि ८.१ ऑपरेटिंग सिस्टम पर बना N ७० कई मायने में एक उत्कृष्ट फ़ोन था. दो कैमरों के साथ सुसज्जित  इस फ़ोन ने विडियो कॉल जन जन तक पंहुचाया। डेडिकेटेड म्यूजिक बटन्स, ब्लूटूथ, १९. ९ एम् बी की इंटरनल मेमोरी ने इसे अपने ज़माने का सुपर फ़ोन बना दिया.

नोकिया N ७०
एप्पल आई फ़ोन

२९ जून, २००७ को आई फ़ोन ने अपना पहला फ़ोन इंट्रोड्यूस किया। जी पी आर एस और EDGE जैसी तकनीक से लैस एप्पल के इस फ़ोन ने मोबाइल के एक नए युग का सूत्रपात किया। पहली बार दुनियाभर में हज़ारों लोगों ने घंटों कतार में खड़े होकर एप्पल स्टोर्स और उसकी लोकप्रियता के नए आयाम स्थापित किये। महज ७४ दिनों में दस लाख एप्पल आई फ़ोन बिक चुके थे.

एप्पल आई फ़ोन

नोकिया ६६००

१६ जून २००३ को नोकिया ने इस स्मार्ट फ़ोन मॉडल को अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतारा और इसकी कीमत रखी यूरो ६००. सिक्स क्लासिक बिज़नस सीरीज का यह मॉडल नोकिया का सबसे एडवांस प्रोडक्ट था जिसे भविष्य की जरूरतों को धन में रख  बनाया गया था. सिम्बिओन ७ ऑपरेटिंग सिस्टम, VGA कैमरा, म्यूजिक प्लेयर, ब्लूटूथ और एक्सटेंडबल मेमोरी के साथ यह एक नायाब मॉडल था. आपको जानकर हैरानी हो के आज इस फ़ोन ने लांच के लगभग १३ वर्ष बाद भी दुनिया के कई देशों में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है. हालाँकि २००७ में ही नोकिया ने इसे बनाना बंद कर दिया था. कहना न होगा की यह एक अत्यंत लोकप्रिय ट्रेंड सेटर फ़ोन था.


मोटो रेजर

२००४ की तीसरी तिमाही में मोटोरोला ने अमेरिकन बाज़ार में लांच किया। इसकी पतली फैशनेबुल डिजाईन ने जल्दी इसे दुनिया भर का चहेता फ़ोन बना दिया।  अपने लांच के महज दो साल (२००६) में इसके ५ करोड़ पीस बिक चुके थे. चार साल पूरे होने से पहले मोटो रेजर V3 ने १३ करोड़ का आंकड़ा छू लिया था और उस समय तक सबसे ज़्यादा बिकने वाला मोबाइल फ़ोन बन चुका था.


मोटो रेजर

ब्लैकबेरी पर्ल ८१००

रिसर्च एंड मोशन जो मोटोरेला की पैतृक कंपनी है,उन्होंने पर्ल शृंखला के फ़ोन को अमेरिका के बाज़ारों में, सितबर २००६ में लांच किया।  विशेषरूप से बिज़नस यूज़र्स को ध्यान में रखकर बनाया गया यह फ़ोन उन सभी खूबियों से लैस था जिसे उस समय के हिसाब से अत्याधुनिक माने जाये। पुश इमेल्स, इंस्टेंट मेस्सजिंग, वाई फाई और अत्यंत त्वरित डाटा ट्रांसफर (७० सेकण्ड्स में १ GB फाइल जो मोटो रेजर, आई फ़ोन और उस समय के तमाम फ़ोन्स से बहुत अधिक था) जैसी खूबियों ने इसने दुनिया भर के लोगों का दिल जीता। इसकी सफलता के बाद ही ब्लैकबेरी ने दुनिया भर में अपनी एक अलग पहचान बनायीं।

ब्लैकबेरी पर्ल ८१००

नोकिया ११००

२००३ में नोकिया ने इस बेसिक फ़ोन को दुनिया भर के बाज़ारों में उतारा। यकीन मानिये, बाकी के हाई एन्ड फ़ोन्स की लोकप्रियता को धता बताते हुए इसके दुनिया भर में २५ करोड़ से ज्यादा पीस बीके। हालाँकि नोकिया अब इससे नहीं बनाती लेकिन इसने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित किये इसमें कोई दो राय नहीं।

नोकिया ११००

नोकिया ३३१०

१ सितंबर २००० में नोकिया ने इसको दुनिया भर के बाज़ारों में रिलीज़ किया और इसके कुछ १३ करोड़ ज़्यादा पीस कुछ ही सालों में बेचकर इसको सबसे ज़्यादा लोकप्रिय फ़ोन्स की सूची में शामिल कर दिया। लेकिन इस मॉडल की प्रसिद्धि का दूसरा कारण था इसका अत्यंत टिकाऊ होना। वास्तव में इसने टिकाऊपन के कई दुर्लभ टेस्ट पास किये जो नोकिया से ज़्यादा इसके उपभोक्ताओं ने किये उनका वीडियोस बनाये और यू ट्यूब पे उपलोड किये। इसे फ़िनलैंड (नोकिया का अपना देश) के सबसे उत्कृष्ट तीन राष्ट्रीय इमोजी में से एक बनाया गया और आधिकारिक रूप से 'अनब्रेकबल' का ख़िताब मिला.


आपके पास भी किसी ऐसे फ़ोन की जानकारी हो जरूर साझा करें।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

मोबाइल तकनीक : बढ़ता दायरा

मोबाइल तकनीक : बढ़ता दायरा 
पिछले दो दसकों में तकनीकी की विकास की धारा पर गौर करें तो मोबाइल फ़ोन सबसे असरदार और सबसे प्रभावशाली तकनीक बन कर उभरी है. TDMA तकनीक से शुरू हुआ यह दौर CDMA से GSM (2G और 3G) और अब VO-LTE (4G) तक पहुँच गया है.  फ़ोन या दूरध्वनी यन्त्र से हमारा तात्पर्य था एक ऐसी मशीन जो दो दूर बैठे इंसानों को एक दूसरे की आवाज सुनने में मदद करे. शुरुआत में हुआ भी यही लेकिन कालांतर में इस छोटी मशीन ने एक अत्यंत बहुआयामी भेष धारण कर लिया है जिसमे दूरध्वनी एक वैकल्पिक सुविधा भर है.  यहाँ तक की आज के मोबाइल फ़ोन्स को सही मायने फ़ोन कहना भी सही नहीं ये कुछ और ही हैं. 

4G (LTE /VOLTE) तकनीक के आने से पहले तक दूरध्वनी तकनीक की प्रासंगिकता थी क्योंकि फ़ोन कॉल करने के लिए आपको वौइस् से वौइस् तकनीक की आवश्यकता थी, कॉल रेट्स (चाहे वह इनकमिंग हो आउटगोइंग) पर टेलीफोन कंपनियों  की दुकान चला करती थी. लेकिन 4G (LTE /VOLTE) ने इसको धता बताना शुरू कर दिया है, अब  VOLTE तकनीक से वौइस् से वौइस् कॉल्स को बड़ी आसानी से डाटा (इन्टरनेट) कॉल्स में बदला जा रहा है, ठीक उसी तरह जैसे हम स्काइप, व्हाट्स ऐप्प या इस तरह की अन्य तकनीक का इस्तेमाल कर रहे थे एक दूसरे से बात करने के लिए. यानि अब अगर आपके फ़ोन में इन्टरनेट की सुविधा है और अगर वह 4G (LTE /VOLTE) सपोर्ट करता है तो आपके कॉल्स मुफ्त में लगा करेंगे चाहे आप व्हाट्स ऐप्प से कॉल करें, स्काइप से या फिर रिलायंस जिओ से. रिलायंस जिओ के साथ फायदा यह होगा की सामने वाले (जिसे आप कॉल कर रहे हैं) के पास 4G या इन्टरनेट होना अनिवार्य नहीं है.

एक बात साफ़ है, हमारे मोबाइल फ़ोन्स बड़ी रफ़्तार से अपना चोला बदल रहे हैं. सुखद बात यह है की एक-एक करके इसके इस्तेमाल करने की तमाम बाधाएं भी दूर हो रहीं हैं. अब घडी की सूई के सहारे मोबाइल कॉल्स करने का ज़माना लद रहा है. फेसबुक और एप्पल जैसी कंपनियां इन्टरनेट पर आधारित तकनीक को और विकसित करने में बड़ी तेजी से काम कर रहे हैं. समय आ गया है जब हम अपनी आवश्यक आवश्यकताओं से रोटी, कपडा और मकान को हटा कर रोटी, कपडा और इन्टरनेट कर दें.    

आप क्या कहते हैं?

रविवार, 8 मई 2016

कैमरा (DSLR) खरीदने से पहले क्या जानें

संभावनाओं की सीढ़ियां चढ़ते मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं को समय समय पर यथार्थ की ज़मीन मुहैया कराई है. कैमरे का आविष्कार और इस्तेमाल भी इसी प्रयास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है. पिछले लेख कैमरे की कहानी  में हमने जाना की इस तकनीक की परिकल्पना आज की नहीं अपितु प्राचीन है और कालांतर में इसके स्वरुप में परिवर्तन आये. आज के अत्याधुनिक कैमरे इसी जुड़ाव की कड़ी की पराकाष्ठा है।

पॉइंट एंड शूट कैमरों की जगह आज स्मार्ट फ़ोन्स ने ले ली है लेकिन फोटोग्राफी की दुनिया की यहाँ से शुरुआत भर होती है. समुन्नत प्रोफेशनल फोटोग्राफी के लिए न पॉइंट एंड शूट कैमरे पर्याप्त थे और न ही स्मार्ट फ़ोन्स पर्याप्त हो पाएंगे। और यहीं से डिजिटल सिंगल लेंस रिफ्लेक्स (DSLR) कैमरों की प्रासंगिकता शुरू होती है. ये उच्च स्तर की फोटोग्राफी जहाँ फास्टर परफॉरमेंस, ज़्यादा सेटिंग कंट्रोल, बेहतर इमेज क्वालिटी महत्वपूर्ण हैं, उसके लिए उपयुक्त हैं. सबसे बड़ी बात DSLR आपको लेंस को बदलने की सुविधा देता है जिससे यह मशीन बहुआयामी और बहुपयोगी हो जाता है. सिंगल लेंस रिफ्लेक्स (SLR) से तात्पर्य है की आप जिस वस्तु/व्यक्ति को कैमरे के लेंस के द्वारा देखते हैं हु ब हु वही आपको कमरे के स्क्रीन या फिर फाइनल फोटोग्राफ में दिखेगी। जैसा की आपको पता है, यह सारी प्रक्रिया अब डिजिटल है. सो इन्हे हम DSLR (डिजिटल सिंगल लेंस रिफ्लेक्स) कैमरे के नाम से जानते हैं.

आज की उपभोक्तावादी वैश्विक परिदृश्य का सबसे सुखद पहलू है विकल्पों की भरमार। आप कुछ भी खरीद रहे हों चाहे वो कलम हो या कैमरा, कार हो या केचअप आपके पास विकल्प ही विकल्प है. जरुरत बस जेब में रुपयों की है. अच्छा इसका जो दूसरा पहलू है वो उतना सुखद नहीं है - आप की खरीदारी अब पहले से ज़्यादा कठिन हो चली है. मैं कई बार मॉल्स से खाली लौट आया हूँ कन्फ्यूज्ड होकर के खरीदा क्या जाय. यकीन मानिये, कपडे तक खरीदना आसान नहीं रहा. 

इस चार्ट को समझने की कोशिश कीजिये। आपको पता लग जायेगा फोटोग्राफी कितना मुश्किल विषय हो सकता है:
Image via Shutha 
इस उपापोह से सलटने का तरीका है - खरीदारी से पहले अपनी प्राथमिकताएँ सेट कर लेना। जी हाँ! ताकि विज्ञापनों के झांसे में आकर चिड़िया खेत न चुग जाए। DSLR की खरीदने की प्रक्रिया भी यहीं से शुरू होनी चाहिए। आपने पहले यह तय करना है की आपको चाहिए क्या - आप डिजिटल फोटोग्राफी को अपना प्रोफेशन बनाना चाहते हैं या शौकिया तौर पर इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं. आपका बजट क्या है? इन दो सवालों का उत्तर मिल जाने के पश्चात आपके अपेक्षाओं पर खरे उतरने वाले कम से कम पांच कैमरों की एक लिस्ट बना लें. 

आइये मैं आपकी थोड़ी मदद कर दूँ.

कैमरे की बॉडी पर ज़्यादा खर्च न करें  

Image : Google Images 
DSLR की सबसे बड़ी खासियत है - आप इसकी लेंस को बदल या अपग्रेड कर सकते हो इसका मतलब यह है की बॉडी सिर्फ एक आधारशिला है जिसपे आप अपनी मनचाही इमारतें बना सकते हैं, जी हाँ! बॉडी से बचाए पैसों से बेहतर लेंस खरीदें और अपनी फोटग्राफी को नेक्स्ट लेवल तक पहुंचाएं। ज़्यादा सेटिंग्स या ज़्यादा काम्प्लेक्स बॉडी से फोटोग्राफी अच्छी होने से रही. पहले आप टूल को समझ लें अच्छी लेंस से आउटस्टैंडिंग इमेजेज लेना शुरू करें। बाद की बात बाद में देखी जाए वही अच्छा है, 


आप ज़्यादा वीडियो लेंगे या स्टिल इमेजेज - या दोनों 

Image : unsplash.com
होता यह है की हम शुरू में ही ज़्यादा पैसे खर्च करके ऐसी मशीन ले लेते है जो सर्व सक्षम है और बाद में वीडियो को हाथ भी नहीं लगाते। कई स्टिल इमेज फोटोग्राफर शायद कभी भी इसका लाभ नहीं उठाते। ऐसी तकनीक पे पैसे क्यों डालना जिसका या तो आप गाहे बगाहे या फिर कभी भी इस्तेमाल नहीं करेंगे। उतने ही खर्चे में आप एक स्टिल कैमरा और उसके साथ एक बेहतर लेंस खरीद सकते हैं.

 कैमरे को हाथ में लेकर देखें, इस्तेमाल करके देखें 

Image : unsplash.com 
ऑनलाइन शॉपिंग की बढ़ती लोकप्रियता जहाँ खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक्स चीज़ें सस्ती मिल जाती वहां ये शर्त बेमानी लगे लेकिन यकीन मानिये अगर आपने कैमरे को खुद महसूस करके खरीदा है इसका कोई मुकाबला नहीं। रास्ता यह है की आप खरीदारी ऑनलाइन करके पैसे बचाएँ लेकिन जांच परख ऑफलाइन स्टोर्स में करें। किसी भी इलेक्ट्रॉनिक्स स्टोर में आप यह कर सकते हैं और आप ऐसा करने वाले अकेले नहीं हैं.

आई एस आई नहीं आई  एस ओ (ISO) परखें

Image : Google Images 
ISO आपके कैमरे को किसी भी लाइटिंग कंडीशन में बेहतर इमेज लेने की क्षमता प्रदान करता है अतः निःसंकोच इसके बारे में पूछताछ करें, जानकारी लें. इसकी रेंज जितनी ज़्यादा होगी आपका कैमरा उतना ही अधिक प्रभावी सिद्ध होगा, विशेष तौर पर रात की फोटोग्राफी या कम प्रकाश वाले फोटोग्राफी में.

मेगापिक्सेल की माया में न पड़ें

Image : Google Images 
 कैमरे की गुणवत्ता मेगापिक्सेल से नहीं होती अतः इसे डील ब्रेकर न मानें। अगर आप बिलबोर्ड्स या अत्यन्त बड़े एडवरटाइजिंग इमेजेज नहीं निकालने वाले तब १० मेगापिक्सेल से कुछ भी अधिक, अच्छा है. 

सेंसर साइज के बारे में पता करें 

Image : Google Images 
पहले यह तय करें की आपको चाइये क्या (फूल फ्रेम लेंस, मिरर लेस या कुछ और) क्यूंकि आपके फोटोग्राफी को प्रभावित करने वाला सवाल है. अच्छा होगा अगर आप इसके बारे में ऑनलाइन पढ़ें, अवेलेबल एक्सपर्ट्स से राय लें और फिर अपनी प्राथमिकताओं को समझें। ज़्यादातर कैमरे APS-C (22.2 x 14.8 mm कनोन और 23.5-23.7 x 15.6 mm अन्य कैमरों के लिए) या फिर फुल साइज फ्रेम (36 x 24 mm) सेंसर का इस्तेमाल करते हैं.

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कहानी कैमरे की


कैमरे हमेशा से एक ऐसी प्रभावशाली मशीन रही है जिसने जीवन-नदी से यादगार पलों की बूँदों को सहेजकर रखने में हमें सक्षम बनाया है. इस अद्भुत तकनीक की कहानी भी बड़ी अद्भुत एवं पुरातन है. ईसा पूर्व ५ वीं शताब्दी में चीन के दर्शन शास्त्री मो ज़ी को बड़ी हैरानी हुई जब उन्होंने यह समझा की एक पिन जितनी छेद से अगर प्रकाश को गुजारा जाय और दूसरी तरफ एक श्याम पटल हो तो एक उलटी ही सही, तस्वीर आंकी जा सकती है. वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस तरह की नयी सोच और नयी तकनीक को अमली जामा पहनांने की ठान ली. मो ज़ी ने बड़ी मशक्कत के बाद एक ऐसी चीज़ बनायी जिसने कमेरे की तकनीक की पृष्टभूमि रखी- इसे आज भी कैमरा ओब्स्क्युरा के नाम से जाना जाता है. अरस्तु और बाद के विद्वानों ने भी अपने लेखों में इस तकनीक की पुष्टि की है.



रोचक बात यह है की काफी लम्बे समय तक इस पर शोध हुए लेकिन कोई सक्षम छायाचित्र नहीं लिया जा सका जिसे सहेजा जा सके. कई सदियों बाद सन् १८२६ में चार्ल्स और विन्सेंट शेवलिएर ने पहली बार पेरिस में एक परमानेंट छायाचित्र खींचा जिसे बनाने में उन्हें तकरीबन ८ घंटों की मशक्कत लगी. जी हाँ! १८३९ में पहली बार फ़्रांसिसी कला प्रेमी अल्फोंे गिरॉक्स ने कैमरे का औद्योगिक उत्पादन शुरू किया और यहीं से आधुनिक कैमरों की कहानी शुरू होती है. आधुनिक कैमरे से यहाँ तात्पर्य फोटोग्राफिक फिल्म वाले कैमरों से है जिन्होंने छायांकन (फोटोग्राफी) को वास्तव में लोकप्रिय बनाया. इसका श्रेय जॉर्ज ईस्टमैन को जाता है जिन्होंने सन् १८८५ में कागज़ के फिल्मों की शुरुआत करी और फिर १८८९ आते आते सिलोलाइड का इस्तेमाल फ़िल्में बनाने के लिए करने लगे. और हाँ ! इन्होने अपने कैमरे का नाम 'कोडैक' (Kodak) रखा जिसने दसकों तक फोटोग्राफी की दुनिया पर एकछत्र राज किया।


पहला कोडेक कैमरा 
कोडैक के ही एक इंजीनियर स्टीवन सेसन ने १९७५ में इमेजेज को स्टोर करने की पद्धति का आविष्कार किया और इस तरह इमेजेज को सहेजने, उन्हें वीडियो कैसेट की सहायता से टेलीविज़न स्क्रीन पर देख पाना सम्भव हुआ. और इस तरह एनालॉग कैमरे लम्बे समय तक लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करते रहे.

डिजिटल कैमरों की शुरुआत सन् २००० से होती है जब पॉइंट एंड शूट कैमरों ने फोटोग्राफी को अत्यन्त सहज बना दिया। इमेजेज का रूपांतरण एवं एडिटिंग आसान हो गया और इसी के साथ कैमरे की कहानी में एक सुखद नया अध्याय जुड़ा। डिजिटल कमरों के पॉकेट फ्रेंडली (कीमत और आकर दोनों) होना इसकी सबसे बड़ी खूबी थी और इसी सहजता ने पॉइंट एंड शूट कैमेरों को २०१० तक अत्यन्त लोकप्रय बनाए रखा. अब आप तस्वीरों को फ़्लैश ड्राइव पर सेव कर कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल अथवा टीवी पर आसानी से देख सकते थे.
शुरुआती डिजिटल कैमरा 
मुझे कैमरों का चस्का तो बहुत था और पापा से जोर ज़बरदस्ती करके एक एनालॉग कैमरा खरीद भी लिया जिसकी सबसे बड़ी खूबी थी उसका छोटा स्क्रीन जिसमे फिल्म की इमेज संख्या दिखती थी. दो सालों बाद जब अपने पैरों पर खड़ा हुआ तब एक दोस्त जो किसी काम से अमेरिका गया था उससे एक निकॉन का बेहद पॉकेट फ्रेंडली कैमरा मंगाया। दस हज़ार की कीमत जो मैंने कई किश्तों में चुकाई वह भी कम लग रही थी. उत्सुकता थी के थमने का नाम नहीं लेती थी. महज ४ मेगापिक्सेल कैमरे जिसने कम रौशनी में कभी भी अच्छी तस्वीर नहीं ली उसपे मेरा पूरा परिवार फ़िदा था. सबसे सुखद यह बात थी की सभी तस्वीरों को तुरंत ही देखा जा सकता था और प्रिंट करवाने, पैसे खर्च करके इंतज़ार करने की जरूरत नहीं रह गयी थी. डिजिटल कैमरे ने हमें पहली बार फोटोग्राफी में आत्मनिर्भर बनाया।

समय का पहिया फिर घुमा और अब हुआ यूँ है के मैंने अपने डिजिटल कैमरे का इस्तेमाल बरसों पहले छोड़ दिया है. स्मार्ट फ़ोन से ही काम चल जाता है कौन भला कैमरे की जहमत उठाये। २०१० दस के बाद डिजिटल कैमरों का सबसे बड़ा शत्रु बना स्मार्ट फ़ोन जिसने तस्वीरें खींचना ही आसान नहीं बनाया बल्कि उन्हें शेयर करना भी सहज कर दिया। यह युग कनेक्टेड कैमरे का था जहां सिर्फ छोटा और सस्ता होना काफी नहीं था, डिजिटल कैमरे इस नयी डिमांड को आत्मसात करने में पिछड़ गए. हुआ यह है की डिजिटल पॉइंट एंड शूट कैमरे अब इतिहास का हिस्सा बनने की कगार पर हैं.

स्मार्ट फ़ोन्स ने हमारे तस्वीरें लेने के उद्देश्य को ही पुनर परिभाषित किया है- यह महज एक तस्वीरें खींचने की मशीन न होकर नेटवर्क्ड डिवाइस बन गयी है. आज चाहे निकोन हो, कैनन हो, सोनी हो या सैमसंग सभी नामचीन कैमरा उत्पादक ऐसे कैमरों को बनाने की होड़ में जुटा है जो कैमरा होने के अलावा एक कनेक्टेड डिवाइस भी बन सके. वाई फाई हो यह ब्लूटूथ सब इसके अंग बनते जा रहें हैं.

देखना यह है की स्मार्ट फोन्स की सम्मुन्नत तकनीक, सहजता से कनेक्ट होने की सुविधा, कम दाम और इजी इस्तेमाल जैसी लोकप्रिय तकनीक को नए जमाने के कैमरे जिन्हे DSLR भी कहते हैं - कहाँ तक झेल पाते हैं. कहीं इन नामचीन कंपनियों का हश्र कोडक वाला न हो जाये। वही कोडक जिसने कैमरे को घर घर तक पहुँचाया, जिसके पास २००० से भी ज़्यादा फोटोग्राफी के पेटेंट थे, वे भी नयी तकनीक का बखूबी आकलन नहीं कर पाये और अंततोगतवा दिवालिया हो गये.

इतिहास का हिस्सा कौन कब बन जाए इस बदलते तकनीक और समय के दौर में, कहना मुश्किल है.

Image Courtesy: Google Images

शुक्रवार, 29 मई 2015

टीवी खरीदने से पहले क्या जानें





अभी चार महीने पहले तक हमारे पास २१ इंचेस का रंगीन पारम्परिक बक्से वाला टीवी ही था. टीवी तकनीक की दुनिया आगे बढ़ती जा रही थी और हम कहीं न कहीं असुरक्षित महसूस कर रहे थे. घर के लोग भी किसी के यहाँ जाते तो एलसीडी की कहानियां लेकर लौटते। मुझे लगा था की पिछले ८ सालों से साथ निभा रहा टीवी अभी कुछ और साल हमारे खर्चे को काम रख पायेगा लेकिन विज्ञापनों ने ऐसा होने न दिया. एलसीडी, प्लाज्मा, लेड और न जाने क्या क्या ने उत्सुकता बनाये रखी और अच्छी टीवी खरीदने का मेरा रिसर्च प्रारम्भ हुआ.


एक बात जो मैं आपको तुरंत कह सकता हूँ वो है: विज्ञापन सिर्फ वही बताएँगे जो उन्हें बताना है, आपको क्या चाहिए ये आपको पता करना पड़ेगा। अतः थोड़ा धीरज रखें, खोजबीन करें, गूगल की शरण में जाएँ। किसी दोस्त से बात करें जिसे इस बात की जानकारी हो या जो इस क्षेत्र में कार्यरत हो. थोड़ा सा प्रयास आपके निर्णय को और बेहतर कर सकता है. चलिए आपकी राह मैं थोड़ी सरल कर देता हूँ.

लगभग चार महीनों के सतत विश्लेषण के बाद मैंने पाया की अगर हम सिर्फ तीन बातों का ख्याल रखें टीवी खरीदारी को बेहतर बनाया जा सकता है:

विज्ञापनों में प्रकाशित आंकड़े और फैंसी शब्दावली का टीवी के पिक्चर क्वालिटी से सम्बन्ध नहीं होता: टीवी के सम्बन्ध में छपे आंकड़े आपको आकर्षित एवं भ्रमित करने के लिए ज़्यादा होती है इनसे आपका कोई हित नहीं सधता। मसलन रिफ्रेश रेट (120Hz, 240Hz, 600Hz इत्यादि ) से आपको कोई फायदा या नुकसान नहीं होता। 60Hz से अधिक कुछ भी अच्छा है. कंट्रास्ट रेश्यो का ज़िक्र है भी तो आम उपभोक्ता का इससे कोई सरोकार नहीं। अगर सेल्समैन आपको कुछ अत्यंत भयंकर शब्द जैसे : "ट्रू मोशन ", "क्लियर मोशन रेट", "मोशन फ्लो रेट ", "एस पी एस " के बारे में बता रहा है तो समझिए उसे अपना माल बेचने की जल्दी है. यह सभी जाली टर्म हैं और इनका कोई फायदा आपको कभी नहीं मिलेगा। व्यू एंगल की बात सेल्समैन जरूर करेगा। आपको बताया जायेगा के १७८ डिग्री सबसे समुन्नत टीवी का व्यू एंगल होता है. cnet.com सरीखे दुनिया के नामी तकनीकी समीक्षक वेबसाइट बताते हैं की यह एक फ़र्ज़ी आकंड़ा है. एक और बात लेड टीवी आपको सबसे अच्छा पिक्चर क्वालिटी देगा यह भी झूठ है. जी हाँ! मेरी सलाह यह होगी के आप खुद दो से ज़्यादा ब्रांड्स के टीवी को देखें और इत्मेनान से जांच परख कर अपने प्राथमिकताओं के आधार पर अपना टीवी खरीदें। 

बड़ा टीवी वाकई बेहतर होता है: यह बहुत कुछ आपके लिविंग रूम, जहां आप टीवी रखने वाले हैं उसके आकार पर भी निर्भर करता है. एक बात याद रखें ३२ इंचेस से कम कुछ भी ना लें. महत्वपूर्ण बात यह की आपका टीवी अगर ५० इंच का है तो सबसे अच्छी पिक्चर क्वालिटी आपको ६ से ८ फ़ीट की दूरी के बीच मिलेगी। इस दूरी पे आपको HD का पूरा आनंद मिलेगा, अगर आपको इससे कम दूरी से देखना है तो ४० या उससे भी काम ३२ इंच का टीवी लें. सेल्स मैन चाहे कुछ भी बखान करे स्मार्ट और 3D टीवी से दूर रहें। इसका आपको कभी फायदा नहीं मिल पायेगा। आप चाहें तो उनसे पूछें जिन्होंने 3D टीवी खरीदा हुआ है. एक बात और, सिर्फ दो हज़ार बाद में खर्च करके आप किसी भी अच्छे टीवी को स्मार्ट बना सकते हैं. यह सुनिश्चित करें के टीवी फुल HD है HD रेडी नहीं। HD रेडी एक भुलावा है और इस पुराने तकनीक को सस्ते में आपको चिपकाने का पूरा प्रयास होगा। आपका टीवी फुल LED होना चाहिए सिर्फ एलसीडी नहीं और उसमे १०८० पीक्सेल्स होंने चाहिए न की ७२० पीक्सेल्स। HDMI केबल के लिए कितने सॉकेट हैं, USB के लिए कितनी जगह है. स्पीकर कितना आरएमएस (RMS) साउंड प्रोडूस करेगा यह भी पूछें। याद रखें स्पीकर की क्वालिटी PMPO से मापना उतना ही भ्रामक है जितना कैमरे की गुणवत्ता मेगापिक्सेल से मापना।  एक  २० आरएमएस से ज़्यादा कुछ भी अच्छा है. वैसे भी चाहे आप जितनी मर्ज़ी महँगी टीवी ले लें उसकी साउंड क्वालिटी से आप कभी संतुष्ट नहीं होंगे। ऐसा सभी टीवी निर्माता जान बूझ कर करते हैं ताकि आप उनके स्पीकर सिस्टम्स खरीद सकें। 

अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) ही टीवी का भविष्य है लेकिन अभी नहीं: अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) से अभी दूरी बना कर रखा जा सकता है, क्यूंकि इसका कंटेंट अभी भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं है. आपको जिस वीडियो की पिक्चर क्वालिटी सेल्समेन दिखा रहा है बस उसे ही आपको देखना पड़ेगा। अभी न फ़िल्में, न सीरियल और न खेल कुछ भी पूरी तरह 4K की गुणवत्ता से शूट नहीं होता। और यह सिर्फ भारत की नहीं पूरी दुनिया की कहानी है. दूसरी अहम बात की अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) बनाने का खर्च बहुत ही काम होता है लेकिन नयी तकनीक का जामा पहनाकर इसकी कीमतें बढ़ा कर रखीं गयीं हैं. जल्दी ही सारे टीवी अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) होने वालें हैं और इनकी कीमतें मुँह के बल गिरने वालीं हैं. इस तकनीक को अभी लेने का कोई मतलब नहीं है. और HD तकनीक जो अभी लोकप्रिय है अभी कुछ सालों तक कहीं नहीं जाने वाला।

रविवार, 15 जून 2014

लैंडलाइन फोन्स : सब दिन होत न एक समान

ट्रेन में सफर के दौरान जो सबसे अनोखी चीज़ खिड़की से बाहर दिखती थी वह होते थे टेलीफोन के खम्भे और उनके लहरों की तरह बहते नीचे-ऊंचे तार. पंछियों ने अब  शायद नए ठिकाने ढूंढ लिए हैं लेकिन एक ज़माने में उनकी शामें उन्ही टेलीफोन के तारों पर गुजारते देखा है मैंने। टेलीफोन के खम्भे का दरवाजे पर लग जाना मामूली बात नहीं थी तब। तीन महीने की सरकारी महकमे में धक्का मुक्की के बाद सरकारी कृपा बरसने का नाम था लैंडलाइन फ़ोन. समय की  बेवफाई  कहें या भाग का लेख लेकिन लैंडलाइन के घटते महत्व ने उन सरकारी बाबुओं और तकनीक विशेषज्ञों को भी हासिये पर लाकर खड़ा कर दिया है. मुई मोबाइल क्या न कराये?



हमारे घर कभी टेलीफोन नहीं आया क्यूंकि पापा को ये तकनीकी पेशोपेश चोंचले लगते थे और चिट्ठियों और कागज़ के पन्नों में उन्हें ज़्यादा आत्मीयता महसूस होती थी. हमने एक बार मोबाइल ही लिया और लगभग एक दसक से उसी को यूज़ करते आ रहे हैं लैंडलाइन की कभी जरूरत पेश ही नहीं आई. बहुत सारे लोगों की शायद यही कहानी है. 

शुरू में यह लगा था की कॉल रेट्स और बैटरी की निर्भरता शायद मोबाइल फ़ोन का हाल पेजर जैसा कर देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कॉल दरों में बेतहासा कमी आई, मोबाइल फ़ोन सस्ते  हुऐ और सबसे बड़ी बात इसने बहुआयामी संभावनाओं का पिटारा खोल दिया।

विल डाल्टेन ने २०१२ में प्रकाशित अपने लेख में कहा था के अगले पांच साल के अंदर लैंडलाइन फ़ोन्स विलुप्त हो जाएंगे। मुझे लगता है दुनिया उसी ओर अग्रसर है. मोबाइल फ़ोन्स की आसान उपलब्धता ने मानो यकायक ही लैंडलाइन के जमे जमाये खेल को बिगाड़ कर रख दिया है. घर के कोने से आती ट्रिंग ट्रिंग की शानदार आवाज़, चोंगे को शान से थाम कर दूरियां मिटाने वाली इस तकनीक से न सिर्फ शहरी बल्कि ग्रामीण उपभोक्ताओं का मोह भांग हो रहा है.


अब दो तरह के लोग ही लैंडलाइन फ़ोन रख रहे हैं पहले जिनका नंबर बहुत पुराना है और इसके मोह से वे उबर नहीं पा रहे या फिर उनके कारोबार का काम इसके बिना नहीं चल सकता। जिस तरह तमाम नए ऑफिसेस डेस्कटॉप से दरकिनार हो रहे है वह समय दूर नहीं जब लैंडलाइन, कारोबार से भी विलुप्त हो जायेंगे। इतिहास में इस नए पन्ने का जुड़ना लगभग तय है.

आप क्या कहते हैं ?

रविवार, 18 मई 2014

बैटरी का भविष्य

तकनीक हमारी ज़िन्दगी का इस कदर हिस्सा बनते जा रहे हैं की पूछिए मत. आँखे खुली नहीं के मोबाइल आँखे दिखाना शुरू कर देता है और फिर रात ढलने तक करते रहिये इसकी खातिरदारी। कभी इसे पूरी सिग्नल नहीं मिल रहां होता  तो कभी यह बैटरी कम चार्ज होने का रोना रो रहा होता है.जब स्मार्ट फ़ोन खरीदने गया था तब मन में हो रहा था के पूरा लोडेड मोबाइल लेंगे जिसमे सब लेटेस्ट तकनीक ठूस ठूस कर भरे होंगे। किया भी यही. और फिर होता यह है के हम तमाम वह उपाय करते है जिससे बैटरी बची रहे, मोबाइल चलता रहे. मुझे लगता है यह मुश्किल आज सभी मोबाइल खरीदने और उपयोग करने वालों की है. आप क्या  कहते हैं. . .? 

स्मार्ट फ़ोन की तकनीक में बेतहाशा विकास हुआ है लेकिन बैटरी पर उतना काम नहीं हुआ. आज भी एक स्मार्ट फ़ोन दो दिन बिना चार्ज किये काम करता रहे यह मुश्किल है. बैटरी को और समुन्नत बनाया जा सके इसपर अनुसंधान होना भी बड़ा महत्वपूर्ण होता जा रहा है. 
via : wirelessduniya.com
अधिकांश चलत डिवाइस में आज लिथियम आयन बैटरी का उपयोग होता है चाहे वह स्मार्ट फ़ोन हों, टैबलेट हों या फिर डिजिटल कैमरा। इस बैटरी की तकनीक ने ही हमें भारी भरकम निकेल बेस्ड बैटरी से निजात दिलाई है. आज ५ बिलियन से भी ज़्यादा लिथियम आयन बैटरीज हर साल दुनिया भर में बिक रहे हैं. सवाल यह है की हमारी जरूरते बढ़ती जा रही है. प्रतिव्यक्ति तकनीक का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है. बैटरी बेस्ड वाहनों का विकास होना है जिन्हे कम से कम ५०० वाट-ऑवर प्रति किलोग्राम की ऊर्जा चाहिए होगी  और आज की लिथिअम आयन बैटरी १५० वाट-ऑवर प्रति किलोग्राम की ऊर्जा ही दे पा रहे हैं. 

जहाँ तक  लिथियम आयन बैटरी के भविष्य का प्रश्न है, लोग इसपर लगे हैं कंपनियां इसपर बहुत सारा पैसा खर्च कर रहीं हैं. ऐसी बैटरीज जल्दी ही आ जाएंगी जो ज्वलनशील नहीं होंगी।  बैटरीज अधिक शक्तिशाली होंगी और बहुत छोटी हो जाएंगी, अनाज के दानों के बराबर। हो सकता है मैग्नीशियम आयन बैटरीज आज के 
लिथियम आयन बैटरीज की जगह ले ले. क्युंकि मैग्नीशियम आसानी से पाया जाने वाला एक सस्ता संसाधन है और यह ज़्यादा ऊर्जा संचयित कर सकता है. हालांकि इसपर अभी बहुत काम होना बाकी है. 

एक बात तो तय है की बैटरी पर हमारी निर्भरता एक लम्बे अर्से तक बनी रहने वाली है और इनको समुन्नत करने के अलावा ज़्यादा विकल्प उपलब्ध नहीं है.